बिहार के एक छोटे से कसबे का नाम है काढ़ागोला।
इसे काढ़ागोला कहें या बरारी अथवा गुरुबाजार । ऐतिहासिक महत्त्व से देखें तो शेरशाह सूरी ने यहाँ से गंगा दार्जीलिंग सड़क का निर्माण करवाया था । महान गुरु तेगबहादुर जी के पवित्र चरण इस धरती पर पड़ने का इतिहास है। पवित्र गंगा और विध्वंशकारी कोशी नदी ने इसके इतिहास पर काफी प्रभाव डाला है।
80 और 90 का दशक यहाँ गुजारना मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात रही। हमारे बचपन में काढ़ागोला आज की तरह नहीं था । सबलोग बड़े ही प्रेम और आनंद के साथ रहते थे। छोटी बातों को पूरा समाज मिलकर आनंद मनाता था। मेरे पिताजी द्वारा स्थापित प्रथम कॉन्वेंट स्कूल का यहाँ की शिक्षा में बड़ा ही योगदान रहा। वहीँ रेफरल अस्पताल की शुरुआत ने यहाँ स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़ा काम किया। बरारी हाट का भगवती मंदिर सभी धर्म के लोगों के लिए धार्मिक सहिष्णुता का केंद्र रहा । मीजिया स्पोर्ट्स क्लब खेल के क्षेत्र में अग्रसर रहा तो राजीव गाँधी मेमोरियल क्लब भी कई सामाजिक अवं धार्मिक आयोजन का समावेश था । गाँधी स्मृति भवन का जीर्णोद्धार हमारे समय में बड़ा ही आकर्षक था।
प्रवीण झा को कौन नहीं जनता । उसकी तेज गति के गेंद से अच्छे बल्लेबाज खौफ खाते थे तो वहीँ मनोज उर्फ़ शिवलाल यादव की फिरकी का सामना करना आसान नहीं था। नंदू भैया अवं नीरज गुप्ता बैडमिंटन के चैम्पियन रहे तो बलराम भैया का लम्बा कद सभी खेलों में आकर्षण का केंद्र था । दिलीप सिन्हा जी , माणिक सिन्हा जी, राजन खान जी तथा अन्य व्यक्तियों ने हमारे समय में खेल प्रतियोगिताएं के किये बड़े आर्थिक योगदान दिए । डॉक्टर गुप्ता और ठाकुर डॉक्टर ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में लोगों की बड़ी सेवा की तो वहीँ डॉक्टर जनार्दन चौरसिआ ने होमेओपेथिक इलाज के द्वारा समाज में बड़ा योगदान दिया।
खेल में रविंदर जी सदाबहार इम्पायर थे तो वहीँ अशोक भैया ने वॉलीबाल की बागडोर थम राखी थी। बाजार में नंदू भैया का बनाया पान सभी खाते थे तो जालो ठाकुर जी के यहाँ बाल कटवाने की लाइन लगा करती थी। विजय भैया ने तो गैस सिलेंडर लेकर तो यहाँ क्रांति ही ला दी । काढ़ागोला रेलवे स्टेशन सबसे बड़ा टूरिस्ट स्पॉट था तो बरंडी नदी ने छठ पूजा के कई वर्ष देखे । लीची के पेड़ से कूदकर राग बिराग खेलना बड़ा सुहावना था तो छुवा छूट और हाथपकड़वा भी आरम्भिक खेलो का आकर्षण रहा। आम, इमली और जामुन के पेड़ जगह थे तो केला की खेती भी मशहूर थी। गर्मी बहुत ज्यादा नहीं पड़ती थी इसलिए गर्मी छुट्टी का खास महत्त्व नहीं रहा करता था ।
तपन दा समाज के सर्वाधिक मिलनसार व्यक्तियों में से थे तो हमारे क्रिकेट टीम का कॅप्टन दीपक यादव हमें अपने बर्फ फैक्ट्री में मुफ्त बर्फ खिलाया करता था । सुजीत चौधरी और पंकज यादव जैसे मित्र सभी प्रकार के खेल अवं अन्य आयोजनों में हमेशा आगे रहते थे । महेन्दर दीक्षित चाचा का मकान इलाके का सबसे बड़ा मकान हुआ करता था। आप समझ सकते है की उस समय का काढ़ागोला कैसा था। आज की पीढ़ी शायद इसे स्वीकार नहीं कर पाए ।
क्रिसमस के दिन ऐसा लगता था की पूरा काढ़ागोला मेरे घर पर आता था तो ईद के दिन दिलशाद भैय्या के घर सबका जमावड़ा लगता था। गुरु पर्व में तो सब लक्समीपुर गुरूद्वारे में लंगर खाते थे तो वहीँ होली, दिवाली, दुर्गा पूजा, छठ अवं सरस्वती पूजा में हम सभी धर्मों के लोग मिलकर आनंद करते थे। दीप अमर के लिए मैं कभी क्रिस्चियन नहीं था तो न ही वो मेरे लिए हिन्दू था, मुन्ना और हसीबुल हमारे लिए मुस्लमान कभी न रहे तो शेरजीत सिंह भी कभी हमारे लिए सिख न था। अलग धर्मों के होते हुए भी सभी लोग एक थे। हिन्दू मुस्लिम जैसे शब्द कभी भी बाजार में सुनाई नहीं देते थे। अगर कभी कुछ शरारती तत्व ऐसे अलगाववाद जैसे राग अलापते थे तो उमेश सर अवं किशोर सर जैसे बुद्धिमान व्यक्तियों की डांट उनको शांत कर देती थी। पैसे कमाने की होड़ हमारे समय में कभी न रही और न ही समाज में कोई अपने स्टेटस का दिखावा करता था।
खेल, सिनेमा, खाना-पीना, पढाई और दोस्तों के साथ टल्ली मरना, यही तो थी जिंदगी।
आज लगभग 20 - 25 वर्ष पहले के उस काढ़ागोला की यादें आज भी ताजी है। काढ़ागोला गोला का स्वरुप आज बदल गया है। मोबाइल और इंटरनेट ने आज यहाँ की जिंदादिली छीन ली है। पुराना काढ़ागोला अब तो सिर्फ सिनेमा के परदे की मानिंद यादों के साये में कहीं बसा है। आज के काढ़ागोला में हिन्दू और मुस्लिम आसानी से पहचाने जा सकते है। किसी सीनियर को दुकान में बैठा देखकर हम सम्मान के कारन उस दुकान में घुसने की हिम्मत नहीं करते थे। आज के काढ़ागोला में वैसा सम्मान नहीं रहा। अब तो किसी से भी गली गलोच और मार पीट पर उतर आते है। नई पीढ़ी शायद हमसे कहीं ज्यादा समझदार है। ये कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट युग है। इंसान धीरे मशीन बनता जा रहा है। मशीन को आप अनुशाशन के अंदर रख सकते है परन्तु उसे जीवन का मूल्य नहीं सीखा सकते।
शहर के भागदौड़ की जिंदगी से ऊबकर कभी सोचता हूँ की सबकुछ समेटकर वापस काढ़ागोला चला जाऊँ, मगर काढ़ागोला की आधुनिक तस्वीर डराती है। क्या हम फिर कभी उस काढ़ागोला को देख पाएंगे? आज के काढ़ागोला के बुद्धिजीवी वर्ग क्या हम काढ़ागोला के पुराने दिन, सौहार्द और उसका प्रताप उसे लौटा पाएंगे। जरा सोचें !